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ترتيب الآية | رقم السورة | رقم الآية | الاية |
191 | 2 | 184 | أياما معدودات فمن كان منكم مريضا أو على سفر فعدة من أيام أخر وعلى الذين يطيقونه فدية طعام مسكين فمن تطوع خيرا فهو خير له وأن تصوموا خير لكم إن كنتم تعلمون |
| | | (वह भी हमेशा नहीं बल्कि) गिनती के चन्द रोज़ इस पर भी (रोज़े के दिनों में) जो शख्स तुम में से बीमार हो या सफर में हो तो और दिनों में जितने क़ज़ा हुए हो) गिन के रख ले और जिन्हें रोज़ा रखने की कूवत है और न रखें तो उन पर उस का बदला एक मोहताज को खाना खिला देना है और जो शख्स अपनी ख़ुशी से भलाई करे तो ये उस के लिए ज्यादा बेहतर है और अगर तुम समझदार हो तो (समझ लो कि फिदये से) रोज़ा रखना तुम्हारे हक़ में बहरहाल अच्छा है |
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192 | 2 | 185 | شهر رمضان الذي أنزل فيه القرآن هدى للناس وبينات من الهدى والفرقان فمن شهد منكم الشهر فليصمه ومن كان مريضا أو على سفر فعدة من أيام أخر يريد الله بكم اليسر ولا يريد بكم العسر ولتكملوا العدة ولتكبروا الله على ما هداكم ولعلكم تشكرون |
| | | (रोज़ों का) महीना रमज़ान है जिस में क़ुरान नाज़िल किया गया जो लोगों का रहनुमा है और उसमें रहनुमाई और (हक़ व बातिल के) तमीज़ की रौशन निशानियाँ हैं (मुसलमानों) तुम में से जो शख्स इस महीनें में अपनी जगह पर हो तो उसको चाहिए कि रोज़ा रखे और जो शख्स बीमार हो या फिर सफ़र में हो तो और दिनों में रोज़े की गिनती पूरी करे ख़ुदा तुम्हारे साथ आसानी करना चाहता है और तुम्हारे साथ सख्ती करनी नहीं चाहता और (शुमार का हुक्म इस लिए दिया है) ताकि तुम (रोज़ो की) गिनती पूरी करो और ताकि ख़ुदा ने जो तुम को राह पर लगा दिया है उस नेअमत पर उस की बड़ाई करो और ताकि तुम शुक्र गुज़ार बनो |
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193 | 2 | 186 | وإذا سألك عبادي عني فإني قريب أجيب دعوة الداع إذا دعان فليستجيبوا لي وليؤمنوا بي لعلهم يرشدون |
| | | (ऐ रसूल) जब मेरे बन्दे मेरा हाल तुमसे पूछे तो (कह दो कि) मै उन के पास ही हूँ और जब मुझसे कोई दुआ माँगता है तो मै हर दुआ करने वालों की दुआ (सुन लेता हूँ और जो मुनासिब हो तो) क़ुबूल करता हूँ पस उन्हें चाहिए कि मेरा भी कहना माने) और मुझ पर ईमान लाएँ |
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194 | 2 | 187 | أحل لكم ليلة الصيام الرفث إلى نسائكم هن لباس لكم وأنتم لباس لهن علم الله أنكم كنتم تختانون أنفسكم فتاب عليكم وعفا عنكم فالآن باشروهن وابتغوا ما كتب الله لكم وكلوا واشربوا حتى يتبين لكم الخيط الأبيض من الخيط الأسود من الفجر ثم أتموا الصيام إلى الليل ولا تباشروهن وأنتم عاكفون في المساجد تلك حدود الله فلا تقربوها كذلك يبين الله آياته للناس لعلهم يتقون |
| | | ताकि वह सीधी राह पर आ जाए (मुसलमानों) तुम्हारे वास्ते रोज़ों की रातों में अपनी बीवियों के पास जाना हलाल कर दिया गया औरतें (गोया) तुम्हारी चोली हैं और तुम (गोया उन के दामन हो) ख़ुदा ने देखा कि तुम (गुनाह) करके अपना नुकसान करते (कि ऑंख बचा के अपनी बीबी के पास चले जाते थे) तो उसने तुम्हारी तौबा क़ुबूल की और तुम्हारी ख़ता से दर गुज़र किया पस तुम अब उनसे हम बिस्तरी करो और (औलाद) जो कुछ ख़ुदा ने तुम्हारे लिए (तक़दीर में) लिख दिया है उसे माँगों और खाओ और पियो यहाँ तक कि सुबह की सफेद धारी (रात की) काली धारी से आसमान पर पूरब की तरफ़ तक तुम्हें साफ नज़र आने लगे फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और हाँ जब तुम मस्ज़िदों में एतेकाफ़ करने बैठो तो उन से (रात को भी) हम बिस्तरी न करो ये ख़ुदा की (मुअय्युन की हुई) हदे हैं तो तुम उनके पास भी न जाना यूँ खुल्लम खुल्ला ख़ुदा अपने एहकाम लोगों के सामने बयान करता है ताकि वह लोग (नाफ़रमानी से) बचें |
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195 | 2 | 188 | ولا تأكلوا أموالكم بينكم بالباطل وتدلوا بها إلى الحكام لتأكلوا فريقا من أموال الناس بالإثم وأنتم تعلمون |
| | | और आपस में एक दूसरे का माल नाहक़ न खाओ और न माल को (रिश्वत में) हुक्काम के यहाँ झोंक दो ताकि लोगों के माल में से (जो) कुछ हाथ लगे नाहक़ ख़ुर्द बुर्द कर जाओ हालाकि तुम जानते हो |
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196 | 2 | 189 | يسألونك عن الأهلة قل هي مواقيت للناس والحج وليس البر بأن تأتوا البيوت من ظهورها ولكن البر من اتقى وأتوا البيوت من أبوابها واتقوا الله لعلكم تفلحون |
| | | (ऐ रसूल) तुम से लोग चाँद के बारे में पूछते हैं (कि क्यो घटता बढ़ता है) तुम कह दो कि उससे लोगों के (दुनयावी) अम्र और हज के अवक़ात मालूम होते है और ये कोई भली बात नही है कि घरो में पिछवाड़े से फाँद के) आओ बल्कि नेकी उसकी है जो परहेज़गारी करे और घरों में आना हो तो) उनके दरवाजों क़ी तरफ से आओ और ख़ुदा से डरते रहो ताकि तुम मुराद को पहुँचो |
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197 | 2 | 190 | وقاتلوا في سبيل الله الذين يقاتلونكم ولا تعتدوا إن الله لا يحب المعتدين |
| | | और जो लोग तुम से लड़े तुम (भी) ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो और ज्यादती न करो (क्योंकि) ख़ुदा ज्यादती करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता |
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198 | 2 | 191 | واقتلوهم حيث ثقفتموهم وأخرجوهم من حيث أخرجوكم والفتنة أشد من القتل ولا تقاتلوهم عند المسجد الحرام حتى يقاتلوكم فيه فإن قاتلوكم فاقتلوهم كذلك جزاء الكافرين |
| | | और तुम उन (मुशरिकों) को जहाँ पाओ मार ही डालो और उन लोगों ने जहाँ (मक्का) से तुम्हें शहर बदर किया है तुम भी उन्हें निकाल बाहर करो और फितना परदाज़ी (शिर्क) खूँरेज़ी से भी बढ़ के है और जब तक वह लोग (कुफ्फ़ार) मस्ज़िद हराम (काबा) के पास तुम से न लडे तुम भी उन से उस जगह न लड़ों पस अगर वह तुम से लड़े तो बेखटके तुम भी उन को क़त्ल करो काफ़िरों की यही सज़ा है |
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199 | 2 | 192 | فإن انتهوا فإن الله غفور رحيم |
| | | फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक ख़ुदा बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है |
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200 | 2 | 193 | وقاتلوهم حتى لا تكون فتنة ويكون الدين لله فإن انتهوا فلا عدوان إلا على الظالمين |
| | | और उन से लड़े जाओ यहाँ तक कि फ़साद बाक़ी न रहे और सिर्फ ख़ुदा ही का दीन रह जाए फिर अगर वह लोग बाज़ रहे तो उन पर ज्यादती न करो क्योंकि ज़ालिमों के सिवा किसी पर ज्यादती (अच्छी) नहीं |
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